EN اردو
एक मैं हूँ और लाख मसाइल ख़ुदा गवाह | शाही शायरी
ek main hun aur lakh masail KHuda gawah

ग़ज़ल

एक मैं हूँ और लाख मसाइल ख़ुदा गवाह

गुलज़ार वफ़ा चौदरी

;

एक मैं हूँ और लाख मसाइल ख़ुदा गवाह
दस्त-ए-तलब है कासा-ए-साइल ख़ुदा गवाह

आँखें खुलीं तो और ही मंज़र था रू-ब-रू
ख़ुद मैं था अपनी राह में हाइल ख़ुदा गवाह

ये काएनात रक़्स में है इक मिरे लिए
पहने हुए नुजूम की पायल ख़ुदा गवाह

दिल में मोहब्बतें हैं तो आँखों में हैरतें
मेरे फ़क़त यही हैं वसाएल ख़ुदा गवाह

मुंसिफ़ तिरी तरफ़ सही पर ख़ून-ए-बे-गुनाह
देगा तिरे ख़िलाफ़ दलाएल ख़ुदा गवाह

दिन-रात इक जुनून-ए-तलाश-ए-मआ'श है
अब कोई मुन्हरिफ़ है न क़ाइल ख़ुदा गवाह