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एक खिड़की गली की खुली रात भर | शाही शायरी
ek khiDki gali ki khuli raat bhar

ग़ज़ल

एक खिड़की गली की खुली रात भर

अली अहमद जलीली

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एक खिड़की गली की खुली रात भर
मुंतज़िर जाने किस की रही रात भर

हम जलाते रहे अपने दिल के दिए
तीरगी क़त्ल होती रही रात भर

मेरी आँखों को कर के अता रतजगे
मेरी तन्हाई सोती रही रात भर

एक ख़ुशबू दराज़ों से छनती हुई
दस्तकें जैसे देती रही रात भर

दिल के अंदर कोई जैसे चलता रहा
चाप क़दमों की आती रही रात भर

एक तहरीर जो उस के हाथों की थी
बात वो मुझ से करती रही रात भर

एक सूरत 'अली' थी जो जान-ए-ग़ज़ल
मेरे शेरों में ढलती रही रात भर