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एक काफ़िर-अदा ने लूट लिया | शाही शायरी
ek kafir-ada ne luT liya

ग़ज़ल

एक काफ़िर-अदा ने लूट लिया

गुलज़ार देहलवी

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एक काफ़िर-अदा ने लूट लिया
उन की शर्म-ओ-हया ने लूट लिया

इक बुत-ए-बेवफ़ा ने लूट लिया
मुझ को तेरे ख़ुदा ने लूट लिया

आश्नाई बुतों से कर बैठे
आश्ना-ए-जफ़ा ने लूट लिया

हम ये समझे कि मरहम-ए-ग़म है
दर्द बन कर दवा ने लूट लिया

उन के मस्त-ए-ख़िराम ने मारा
उन की तर्ज़-ए-अदा ने लूट लिया

हुस्न-ए-यकता की रहज़नी तौबा
इक फ़रेब-ए-नवा ने लूट लिया

होश-ओ-ईमान-ओ-दीन क्या कहिए
शोख़ी-ए-नक़श-ए-पा ने लूट लिया

रहबरी थी कि रहज़नी तौबा
हम को फ़रमाँ-रवा ने लूट लिया

एक शोला-नज़र ने क़त्ल किया
एक रंगीं-क़बा ने लूट लिया

हम को ये भी ख़बर नहीं 'गुलज़ार'
कब बुत-ए-बेवफ़ा ने लूट लिया

हाए वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्क-बू तौबा
हम को बाद-ए-सबा ने लूट लिया

उन को 'गुलज़ार' मैं ख़ुदा समझा
मुझ को मेरे ख़ुदा ने लूट लिया