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एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है | शाही शायरी
ehsas-e-zimmedari bedar ho raha hai

ग़ज़ल

एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है

राही फ़िदाई

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एहसास-ए-ज़िम्मेदारी बेदार हो रहा है
हर शख़्स अपने क़द का मीनार हो रहा है

आवाज़-ए-हक़ कहीं अब रू-पोश हो न जाए
हर्फ़-ए-ग़लत बरहना तलवार हो रहा है

किस नक़्श की जिला है अनफ़ास-ए-कहकशाँ में
वो कौन साया-साया दीवार हो रहा है

मिन्नत-गह-ए-सियाही ऐलान-ए-ख़ैर-ख़्वाही
कम-ज़र्फ़ वलवलों का इज़हार हो रहा है

हैरत-ज़दा है 'राही' दरिया से एहतिजाजन
मासूम क़तरा-क़तरा ग़द्दार हो रहा है