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एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें | शाही शायरी
ehsas-e-be-talab ka hi ilzam do hamein

ग़ज़ल

एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें
रुस्वाइयों की भीड़ में इनआम दो हमें

ख़ुद्दारियों की धूप में आराम दो हमें
सौग़ात में ही गर्दिश-ए-अय्याम दो हमें

एहसास-ए-लम्स जिस्म की इस भीड़ में कहाँ
काली रुतें गुनाह का पैग़ाम दो हमें

गुम-सुम हिसार-ए-रब्त में है लम्हा-ए-अज़ाब
ख़्वाहिश का कर्ब फ़ितरत-ए-बदनाम दो हमें

बे-ज़ारियों को दश्त-ए-नफ़स में समेट कर
दर्द-आश्ना जुनून के अहकाम दो हमें

दश्त-ए-सराब-ए-संग है माज़ी का इज़्तिराब
गर हो सके तो मुस्तक़िल आराम दो हमें

सौग़ात में मिली है मुझे राएगाँ शफ़क़
किस ने कहा है इस का भी इल्ज़ाम दो हमें

यादों का इक हुजूम है ऐ 'रिंद' और हम
फ़ुर्सत नहीं है इन दिनों आराम दो हमें