दूर दूर सहरा है
और दिल अकेला है
लफ़्ज़ लफ़्ज़ पत्थर हैं
ज़ख़्म ज़ख़्म रस्ता है
कोह-ए-जाँ उठाए हूँ
बोझ मेरा अपना है
ज़र्द ज़र्द हैं कलियाँ
और बाग़ महका है
दिन को मत कहो क़िस्से
कोई राह भूला है
मैं कि इश्क़-ए-पेचाँ हूँ
तू शिकस्ता छज्जा है
क्यूँ ख़मोश है सब्ज़ा
ज़हर पी के सोया है
मदरसे की ईंटों पर
सब कुछ अब भी लिक्खा है

ग़ज़ल
दूर दूर सहरा है
इशरत आफ़रीं