दूर भी जाते हुए पास भी आते हुए हम 
भूलते भूलते कुछ याद दिलाते हुए हम 
नींद का इस को नशा हम को जगाने की हवस 
ख़्वाब में आते हुए नींद चुराते हुए हम 
पहले रोते हुए अपनी ही निगहबानी में 
और बे-साख़्ता फिर ख़ुद को हँसाते हुए हम 
पिछली शब पोंछते आँखों से पुराने सभी ख़्वाब 
अगली शब ख़्वाबों का अम्बार लगाते हुए हम 
चारागर बनते हुए अपनी ही वीरानी में 
पहली बारिश में अकेले ही नहाते हुए हम 
ख़ून अरमानों का करते हुए ख़ामोशी से 
और फिर ख़ून को आँखों में छुपाते हुए हम 
अपनी झोली में किसी जीत का नश्शा सा लिए 
उस के कूचे से 'ज़िया' हार के जाते हुए हैं हम
        ग़ज़ल
दूर भी जाते हुए पास भी आते हुए हम
ज़िया ज़मीर

