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दुश्मन की मलामत बला है | शाही शायरी
dushman ki malamat bala hai

ग़ज़ल

दुश्मन की मलामत बला है

मुनीर शिकोहाबादी

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दुश्मन की मलामत बला है
ये मोम का साँप काटता है

वसवास-ए-हिसाब-ए-हश्र क्या है
गुमनामों को कौन पूछता है

आलम मुश्ताक़ दीद का है
वो बुत न दिखाए मुँह ख़ुदा है

वो सीम-बदन मगर ख़फ़ा है
सोना जो हराम हो गया है

सर-ता-पा हूँ ब-रंग-ए-तस्वीर
क्या ज़ोफ़ का रंग जम गया है

क़श्क़ा खिंचा है अब्रूओं में
दो नीमचे एक पर तुला है

महफ़ूज़ उफ़्तादगी ने रक्खा
तावीज़ में नक़्श-ए-बोरिया है

गर्दिश से मिली मुझे सआदत
हर आबला बैज़ा-ए-हुमा है

झड़ते हैं फूल मुँह से ऐ गुल
बातों का झाड़ मोतिया है