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दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई | शाही शायरी
dushman ki baat jab teri mahfil mein rah gai

ग़ज़ल

दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई

रसा रामपुरी

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दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई
उम्मीद यास बन के मिरे दिल में रह गई

तू हम से छप गया तो तिरी शक्ल-ए-दिल-फ़रेब
तस्वीर बन के आईना-ए-दिल में रह गई

निकला वहाँ से मैं तो मिरे दिल की आरज़ू
सर पीटती हुई तिरी महफ़िल में रह गई

देखा जो क़त्ल-ए-आम तो हर लाश पर अजल
इक आह भर के कूचा-ए-क़ातिल में रह गई

मैं क्या कहूँ 'रसा' कि मिरे दिल पे क्या बनी
तलवार खिच के जब कफ़-ए-क़ातिल में रह गई