दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई
उम्मीद यास बन के मिरे दिल में रह गई
तू हम से छप गया तो तिरी शक्ल-ए-दिल-फ़रेब
तस्वीर बन के आईना-ए-दिल में रह गई
निकला वहाँ से मैं तो मिरे दिल की आरज़ू
सर पीटती हुई तिरी महफ़िल में रह गई
देखा जो क़त्ल-ए-आम तो हर लाश पर अजल
इक आह भर के कूचा-ए-क़ातिल में रह गई
मैं क्या कहूँ 'रसा' कि मिरे दिल पे क्या बनी
तलवार खिच के जब कफ़-ए-क़ातिल में रह गई

ग़ज़ल
दुश्मन की बात जब तिरी महफ़िल में रह गई
रसा रामपुरी