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दुश्मन भी अपने दोस्त से यारब जुदा न हो | शाही शायरी
dushman bhi apne dost se yarab juda na ho

ग़ज़ल

दुश्मन भी अपने दोस्त से यारब जुदा न हो

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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दुश्मन भी अपने दोस्त से यारब जुदा न हो
न आश्ना को भी अलम-ए-आश्ना न हो

सद-चाक हो वो दिल कि जो दर्द-आश्ना न हो
फूटे वो आँख जिस से कि आँसू गिरा न हो

वो सैद हूँ कि पर भी हों और उड़ सका न हो
यारब मुझे कहीं पर-ए-माही मिला न हो

ब'अद-अज़-फ़ना ज़मीं से न उठा मिरा ग़ुबार
ऐसा कोई किसी की नज़र से गिरा न हो

करती है अब तलक जो लगावट तुम्हारी तेग़
तस्मा कोई गले में लगा रह गया न हो

मर कर भी उस गली में न हम पहुँचें या नसीब
ख़ाक अपनी जब उड़े तो उधर की हवा न हो

बे-यार ज़ौक़ कब है शराब-ओ-कबाब से
पर्वा नहीं है अब मुझे साक़ी हो या न हो

ख़ून-ए-जिगर पिया न हो जिस ने वो मय पिए
खाए वही कबाब कि जो दिल-जला न हो

हम ख़ाक में मिले तो मिले ग़म मगर ये है
दिल में तिरे ग़ुबार कहीं आ गया न हो

रुस्वाई का भी चाहिए वहशत में कुछ ख़याल
दामन जो चाक हो तो गरेबाँ फटा न हो

बे-जुर्म-ओ-बेगुनाह न आशिक़ को क़त्ल कर
काबा तिरी गली ही कहीं कर्बला न हो

खींची थी तेग़ पर न नज़ाकत से खिंच सकी
क़ातिल का क्या क़ुसूर जो मेरी क़ज़ा न हो

मरहम जो सब्ज़ तुम ने लगाया तो फ़ाएदा
बे-आब-ए-तेग़ ज़ख़्म हमारा हरा न हो

बाँग-ए-दरा तो होती नहीं ऐसी दिल-ख़राश
हमराह-ए-क़ाफ़िला दिल-ए-नालाँ मिरा न हो

जो हो सकें वो मुझ से करो बे-वफ़ाइयाँ
ता फिर किसी को तुम से उम्मीद-ए-वफ़ा न हो

जुज़ कहरुबा उठाई किसी ने न मेरी लाश
काहीदा इस क़दर कोई यारब हुआ न हो

हसरत से क्यूँ तड़पते हैं सय्याद असीर-ए-दाम
हाथों में तेरे ताइर-ए-रंग-ए-हिना न हो

खा खा के पान पीक जो फेंकी मज़ार पर
उस के शहीद-ए-लब का यही ख़ूँ-बहा न हो

इस दर्जा क्यूँ है चर्ख़-ए-जफ़ा-जू को इज़्तिराब
दिल को मिरे क़रार कहीं आ गया न हो

ख़ामोश अपने दर पे मुझे देख कर वो शोख़
कहता है ये फ़क़ीर कहीं बे-नवा न हो

है दरमियाँ में तफ़रक़ा-पर्वाज़-गुफ़्तुगू
ख़ामोश हो तो लब से कभी लब जुदा न हो

बहर-ए-जवाब ख़त में जगह छोड़ दी थी कुछ
क़ासिद ने उस पे ख़त्त-ए-गु़लामी लिखा न हो

फिर रूह को है जिस्म में आने का इश्तियाक़
उस ने मिरे जनाज़े को कांधा दिया न हो

बेचैन हो न जाएँ सब आसूदगान-ए-ख़ाक
वो चाल चल कि जिस से क़यामत बपा न हो

तू मुझ सियाह-बख़्त की जानिब निगाह कर
देखूँ तो क्यूँकर आँख तिरी सुर्मा-सा न हो

तारीक हो गया है नज़र में जहाँ 'वज़ीर'
आँखों में उस की ग़ैर ने सुर्मा दिया न हो