दुनिया से तन को ढाँप क़यामत से जान को
दो चादरें बहुत हैं तिरी आन-बान को
इक मैं ही रह गया हूँ किए सर को बार-ए-दोश
क्या पूछते हो भाई मिरे ख़ानदान को
जिस दिन से अपने चाक-ए-गरेबाँ का शोर है
ताले लगा गए हैं रफ़ूगर दुकान को
फ़िलहाल दिल पे दिल तो लिए जा रहे हो तुम
और जो हिसाब भूल गया कल-कलान को
दिल में से चुन के हम भी कोई ग़ुंचा ऐ नसीम
भेजेंगे तेरे हाथ कभी गुलसितान को
मशग़ूल हैं सफ़ाई-ओ-तौसी-ए-दिल में हम
तंगी न इस मकान में हो मेहमान को
ग़ज़ल
दुनिया से तन को ढाँप क़यामत से जान को
अहमद जावेद