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दुनिया से दाग़-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम ले गया | शाही शायरी
duniya se dagh-e-zulf-e-siyah-fam le gaya

ग़ज़ल

दुनिया से दाग़-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम ले गया

मुनीर शिकोहाबादी

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दुनिया से दाग़-ए-ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम ले गया
मैं गोर में चराग़-ए-सर-ए-शाम ले गया

की तर्क मैं ने शैख़ ओ बरहमन की पैरवी
दैर-ओ-हरम में मुझ को तिरा नाम ले गया

दोज़ख़ में जल गया कभी जन्नत में ख़ुश रहा
मर कर भी साथ गर्दिश-ए-अय्याम ले गया

मैं जुस्तुजू-ए-कुफ़्र में पहुँचा ख़ुदा के पास
काबा तक इन बुतों का मुझे नाम ले गया

पहना कफ़न तो कूचा-ए-क़ातिल में पाई राह
काबा में मुझ को जामा-ए-एहराम ले गया

नफ़रत हुई दो-रंगी-ए-लैल-ओ-नहार से
मैं सुब्ह ओ शाम उस को लब-ए-बाम ले गया

कुछ लुत्फ़ इश्क़ का न मिला जीते-जी 'मुनीर'
नाहक़ का रंज मुफ़्त का इल्ज़ाम ले गया