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दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते | शाही शायरी
duniya ka na uqba ka koi gham nahin sahte

ग़ज़ल

दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते

सिराज लखनवी

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दुनिया का न उक़्बा का कोई ग़म नहीं सहते
जो आप के हो जाते हैं अपने नहीं रहते

रो ले अभी कुछ और ग़नीमत है ये रोना
बन जाते हैं वो ज़हर जो आँसू नहीं बहते

अब कोई नई चाल चल ऐ गर्दिश-ए-दुनिया
हम रोज़ के फ़ित्ने को क़यामत नहीं कहते

सब पूछो गुज़रती है जो हम पर वो न पूछो
दिल रोता है और आँख से आँसू नहीं बहते

आग और धुआँ और हवस और है इश्क़ और
हर हौसला-ए-दिल को मोहब्बत नहीं कहते

इस दौर में करवट न बदल जज़्बा-ए-एहसास
हैं चैन से जो होश में अपने नहीं रहते

हैरान हैं अब जाएँ कहाँ ढूँडने तुम को
आईना-ए-इदराक में भी तुम नहीं रहते

दीदार के तालिब तो 'सिराज' अब भी हैं लेकिन
जलना तो बड़ा काम है आँच इक नहीं सहते