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दुनिया-दारी से ना-वाक़िफ़ कैसा पागल लड़का था | शाही शायरी
duniya-dari se na-waqif kaisa pagal laDka tha

ग़ज़ल

दुनिया-दारी से ना-वाक़िफ़ कैसा पागल लड़का था

रज़्ज़ाक़ अरशद

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दुनिया-दारी से ना-वाक़िफ़ कैसा पागल लड़का था
जब रोने का मौक़ा होता तब भी हँसता रहता था

हम से कैसी भूल हुई थी हम ने क्या क्या सोचा था
बिल्कुल मोम सा पिघला वो तो जो कुंदन सा लगता था

शक के साए फैल रहे हैं बस्ती वाले हैराँ हैं
उस ने दरिया पार किया है तो क्या मटका पक्का था

ज़ेहन में धुँदला धुँदला सा इक नक़्श उभरता जाता है
हम तुम को पहचान रहे हैं हम ने तुम को देखा था

पहले कुछ सोचा ही नहीं था लेकिन अब इस सोच में हैं
मिल कर भी क्या पाया तुम से मिलते नहीं तो अच्छा था

वो जो इक उम्मीद थी तुम से ख़ैर उसे अब छोड़ो तुम
तुम पर क्या इल्ज़ाम धरें हम यूँ भी ये तो होना था