दुनिया भी पेश आई बहुत बे-रुख़ी के साथ
हम ने भी ज़ख़्म खाए बड़ी सादगी के साथ
इक मुश्त-ए-ख़ाक आग का दरिया लहू की लहर
क्या क्या रिवायतें हैं यहाँ आदमी के साथ
अपनों की चाहतों ने भी क्या क्या दिए फ़रेब
रोते रहे लिपट के हर इक अजनबी के साथ
जंगल की धूप छाँव ही जंगल का हुस्न है
सायों को भी क़ुबूल करो रौशनी के साथ
तुम रास्ते की गर्द न हो जाओ तो कहो
दो-चार गाम चल के तो देखो किसी के साथ
कोई धुआँ उठा न कोई रौशनी हुई
जलती रही हयात बड़ी ख़ामुशी के साथ
ग़ज़ल
दुनिया भी पेश आई बहुत बे-रुख़ी के साथ
अख़तर इमाम रिज़वी