दुख से ग़ैरों के पिघलता कौन है
ख़ुद से बाहर अब निकलता कौन है
बर्फ़ सी तासीर सब की हो गई
ज़ुल्म सह कर अब उबलता कौन है
ग़ैर को ही सब बदलने में रहे
अपनी फ़ितरत को बदलता कौन है
छोड़ दो उस को उसी के हाल पर
इश्क़ में पड़ कर सँभलता कौन है
ज़िंदगी भर जो न खाए ठोकरें
खोल कर आँखें यूँ चलता कौन है
दूर मुझ से हो गया बचपन मगर
मुझ में बच्चे सा मचलता कौन है
ख़्वाहिशों पर क़ैद 'कलकल' क्यूँ लगे
उम्र के साँचे में ढलता कौन है

ग़ज़ल
दुख से ग़ैरों के पिघलता कौन है
राजेन्द्र कलकल