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डुबोए देता है ख़ुद-आगही का बार मुझे | शाही शायरी
Duboe deta hai KHud-agahi ka bar mujhe

ग़ज़ल

डुबोए देता है ख़ुद-आगही का बार मुझे

अनवर सिद्दीक़ी

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डुबोए देता है ख़ुद-आगही का बार मुझे
मैं ढलता नश्शा हूँ मौज-ए-तरब उभार मुझे

ऐ रूह-ए-अस्र में तेरा हूँ तेरा हिस्सा हूँ
ख़ुद अपना ख़्वाब समझ कर ज़रा सँवार मुझे

बिखर के सब में अबस इंतिज़ार है अपना
जला के ख़ाक कर ऐ शम-ए-इंतिज़ार मुझे

सदा-ए-रफ़्ता सही लौट कर मैं आऊँगा
फ़राज़-ए-ख़्वाब से ऐ ज़िंदगी पुकार मुझे

अज़ाब ये है कि मुझे जैसे फूल और भी हैं
सलीब-ए-शाख़ से दस्त-ए-ख़िज़ाँ उतार मुझे

ग़रीब-ए-शहर नवा ही सही मगर यारो
बहुत है अपनी ही आवाज़ का दयार मुझे