दोनों में कितना फ़र्क़ मगर दोनों का हासिल तन्हाई 
अपनों में दूरी लाती है वो शोहरत हो या रुस्वाई 
जीवन के कोरे काग़ज़ पर जीना होगा तहरीरों में 
उजले पन्नों पर स्याही से करनी होगी हर्फ़-आराई 
हम हैं उस का ही अक्स मगर है बीच में जीवन का दर्पन 
जब टूटेगा जीवन-दर्पन तब ज़ाहिर होगी सच्चाई 
पहले तो ख़ुद से दूर किया फिर सज़ा सुनाई जीने की 
जी चुके तो ये फ़रमान मिला अब फिर से होगी सुनवाई 
वो ख़ुद में मुकम्मल है तो फिर क्यूँकर वो ख़ुद में रह न सका 
क्यूँ बिखर गया ज़र्रा ज़र्रा क्यूँ सह न सका वो तन्हाई
        ग़ज़ल
दोनों में कितना फ़र्क़ मगर दोनों का हासिल तन्हाई
दीप्ति मिश्रा

