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दोनों जहाँ से आ गया कर के इधर उधर की सैर | शाही शायरी
donon jahan se aa gaya kar ke idhar udhar ki sair

ग़ज़ल

दोनों जहाँ से आ गया कर के इधर उधर की सैर

फ़ैज़ान हाशमी

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दोनों जहाँ से आ गया कर के इधर उधर की सैर
पूछो न जा रहा हूँ मैं करने को अब किधर की सैर

मिट्टी की ख़ूब-सूरती मिट्टी में मिल के देखिए
छोड़िए इस मकीन को कीजिए अपने घर की सैर

देखी नहीं थी चाक ने अच्छी तरह से देख ली
वैसे भी दिल-फ़रेब थी कूज़े पे कूज़ा-गर की सैर

सेब के पेड़ के तले गेंद वो घूमती हुई
पूरी कशिश से खींच कर करने लगी है सर की सैर

वैसे तो कुछ नहीं पता इतना पता है बाग़ है
बरसों से कर रहा हूँ मैं जिस के लिए उधर की सैर

तेरी ही सैर के लिए आता रहूँगा बार बार
तेरा था सात दिन का शौक़ मेरी है उम्र भर की सैर

पहली नज़र में काएनात उतनी खिली कि जितनी थी
फिर जो नज़र ने सैर की करती रही ख़बर की सैर