दिलबर को दिलबरी सूँ मना यार कर रखूँ
पीतम को अपने पीत सूँ गुलहार कर रखूँ
एक नौम सूँ जगाऊँ अगर मुर्दा दिल के तईं
ता-हश्र याद-ए-हक़ मने बेदार कर रखूँ
रहता है दिल हर एक का हर एक काम में एक
अपना ख़याल सूरत-ए-परकार कर रखूँ
दिस्ता है मुझ को यार का रुख़्सार-ए-गुल-इज़ार
तिस की ख़ुशी सूँ तब्अ को गुलज़ार कर रखूँ
मनके को मन के लाऊँ फिराने का जब ख़याल
तस्बीह बदन की तोड़ के एक तार कर रखूँ
पीतम के बाज नहीं है मिरा इख़्तियार कुछ
मुझ दिल को तिस के अम्र में मुख़्तार कर रखूँ
बे-सर अगर अछे तो उसे सर करूँ अता
दोनों जहाँ में साहिब-ए-असरार कर रखूँ
अंधे के तईं 'अलीम' लगा इश्क़ का अंजन
सब वासिलाँ में वासिल-ए-दीदार कर रखूँ

ग़ज़ल
दिलबर को दिलबरी सूँ मना यार कर रखूँ
अलीमुल्लाह