दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो
ख़्वाब देखो कि हक़ीक़त से पशेमानी न हो
क्या हुआ अहल-ए-जुनूँ को कि दुआ माँगते हैं
शहर में शोर न हो दश्त में वीरानी न हो
ढूँडते ढूँडते सब थक गए लेकिन न मिला
इक उफ़ुक़ ऐसा कि जो धुँद का ज़िंदानी न हो
ग़म की दौलत बड़ी मुश्किल से मिला करती है
सौंप दो हम को अगर तुम से निगहबानी न हो
नफ़रतों का वही मल्बूस पहन लो फिर से
ऐन मुमकिन है ये दुनिया तुम्हें पहचानी न हो
ग़ज़ल
दिल परेशाँ हो मगर आँख में हैरानी न हो
शहरयार