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दिल-ओ-नज़र में न पैदा हुई शकेबाई | शाही शायरी
dil-o-nazar mein na paida hui shakebai

ग़ज़ल

दिल-ओ-नज़र में न पैदा हुई शकेबाई

राम कृष्ण मुज़्तर

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दिल-ओ-नज़र में न पैदा हुई शकेबाई
किसी के ग़म ने तबीअ'त हज़ार बहलाई

तमाम हुस्न-ओ-मोहब्बत तमाम रानाई
वो इक निगाह जो पैग़ाम-ए-ज़िंदगी लाई

छलक पड़ें न कहीं अश्क मेरी आँखों से
किसी के दर्द-ए-मोहब्बत की हो न रुस्वाई

ग़म-ए-ज़माना के मारे न रह सके ज़िंदा
निगाह-ए-दोस्त ने क्या क्या न की मसीहाई

न रुक सकेंगे रह-ए-इश्क़ में जुनूँ के क़दम
कि बढ़ रहा है अभी ज़ौक़-ए-आबला-पाई

वो जेहद-ए-जामा-दरी है न फ़िक्र-ए-बख़िया-गरी
अजीब हाल में हैं आज तेरे सौदाई

नज़र पड़ा न कहीं वो ग़ज़ाल-ए-रम-ख़ुर्दा
जुनून-ए-शौक़ ने की लाख दश्त-पैमाई

मिरी तरह तो तमाशा न बन सका कोई
अगरचे एक जहाँ था तिरा तमाशाई

क़रीब आ के भी एहसास-ए-बोद मिट न सका
कि तेरे हो के भी हम हैं तिरे तमन्नाई

जो हिर्स-ओ-आज़ के बंदे हैं उन को क्या मालूम
वक़ार-ए-बंदगी-ओ-अज़मत-ए-जबीं-साई

हर एक चीज़ जहाँ सीम-ओ-ज़र में तुलती है
मिरे ख़ुलूस की क्या हो वहाँ पज़ीराई

ये लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं ये अंजुम-ओ-महताब
कहाँ नहीं तिरे जल्वों की आलम-आराई

मुझे वो अहद वो दिन-रात याद आते हैं
कि जब न थी तिरे ग़म से कोई शनासाई

शब-ए-फ़िराक़ की बे-ताबियों को क्या कहिए
कभी कभी तो मिरे ग़म को भी हँसी आई

न रह सका किसी आलम में भी तिरा 'मुज़्तर'
कि ग़म हुआ न गवारा ख़ुशी न रास आई