EN اردو
दिल में जो तसव्वुर है तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा का | शाही शायरी
dil mein jo tasawwur hai teri zulf-e-rasa ka

ग़ज़ल

दिल में जो तसव्वुर है तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा का

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

;

दिल में जो तसव्वुर है तिरी ज़ुल्फ़-ए-रसा का
समझा हूँ इसे मैं तो अमल रद्द-ए-बला का

दुनिया में कोई मुझ सा गुनहगार न होगा
मैं ख़ाक का पुतला नहीं पुतला हूँ ख़ता का

जन्नत की है उम्मीद तो दोज़ख़ का है खटका
दुश्वार है मैदान बहुत बीम-ओ-रजा का

हूरान-ए-जिनाँ ने हमें आँखों पे बिठाया
देखे तो कोई मर्तबा तेरे शोहदा का

साग़र की तमन्ना है न शीशे की ज़रूरत
मस्ताना हूँ तेरी निगह-ए-होश-रुबा का

अनवार-ए-मोहम्मद के हैं अनवार-ए-इलाही
दीदार मोहम्मद का है दीदार ख़ुदा का

इक राज़ है ये भी कि तिरी तेग़ का पानी
चश्मा है शहीदों के लिए आब-ए-बक़ा का

अल्लाह के महबूब की नज़रों में है ए'जाज़
सीने में जो अल्लाह का घर था उसे ताका

बे-आई मरूँ तुम पे कि मरना है मुक़द्दर
क्यूँ मुफ़्त में एहसान उठाऊँ मैं क़ज़ा का

मरक़द में भी उम्मत को न भूले शह-ए-वाला
अल्लाह-ग़नी ध्यान है कितना ग़ुरबा का

रौज़े पे क्या अर्ज़ मिरा हाल-ए-परेशाँ
एहसान न भूलूँगा कभी बाद-ए-सबा का

जिस ख़ाक पे आशिक़ ने किए सज्दों पे सज्दे
ख़ाका था वहाँ आप के नक़्श-ए-कफ़-ए-पा का

अर्बाब-ए-करम फूलते-फलते हैं हमेशा
मिलता है समर उन को ग़रीबों की दुआ का

'रासिख़' की ज़बाँ पर हो दम-ए-मर्ग ये मिस्रा
महबूब की उम्मत में हूँ बंदा हूँ ख़ुदा का