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दिल को रह रह के इंतिज़ार सा है | शाही शायरी
dil ko rah rah ke intizar sa hai

ग़ज़ल

दिल को रह रह के इंतिज़ार सा है

महशर इनायती

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दिल को रह रह के इंतिज़ार सा है
क्या किसी सम्त कुछ ग़ुबार सा है

देख कर कश्मकश मनाज़िर की
आँख उठाना भी नागवार सा है

ज़ुल्फ़-ए-गीती सँवारने वाले
सादगी में बड़ा सिंघार सा है

इक उन्हें देखो इक मुझे देखो
वक़्त कितना करिश्मा-कार सा है

जाने क्यूँ हर फ़साना-ए-माज़ी
क़िस्सा-ए-मौसम-ए-बहार सा है

आप 'महशर' से मिल के देखें तो
आदमी वो भी बुर्दबार सा है