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दिल को नशात-ए-ग़म से हूँ शादाँ किए हुए | शाही शायरी
dil ko nashat-e-gham se hun shadan kiye hue

ग़ज़ल

दिल को नशात-ए-ग़म से हूँ शादाँ किए हुए

सरताज आलम आबिदी

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दिल को नशात-ए-ग़म से हूँ शादाँ किए हुए
मुझ पर फ़िराक़-ए-याद है एहसाँ किए हुए

आहें बता रही हैं कि देरीना चोट है
चेहरा है दिल के रंज को उर्यां किए हुए

जैसे ख़िज़ाँ-रसीदा कोई बर्ग-ए-दश्त में
फिरते हैं दिल में दर्द को पिन्हाँ किए हुए

शाहिद हैं सोज़-ए-क़ल्ब के क़तरात अश्क-ए-ग़म
पलकों पे हैं चराग़-ए-फ़रोज़ाँ किए हुए

आई है फिर बहार जुनूँ को मिली है शह
मुद्दत हुई थी चाक गरेबाँ किए हुए

यादों के गुल खिले हैं तसव्वुर में आज फिर
हम आ है हैं सैर-ए-गुलिस्ताँ किए हुए

इंसानियत का क़हत है 'सरताज' आज-कल
मुद्दत हुई ज़ियारत-ए-इंसाँ किए हुए