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दिल की ज़मीं से कौन सी बेहतर ज़मीन है | शाही शायरी
dil ki zamin se kaun si behtar zamin hai

ग़ज़ल

दिल की ज़मीं से कौन सी बेहतर ज़मीन है

मीर हसन

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दिल की ज़मीं से कौन सी बेहतर ज़मीन है
पर जान तू भी हो तो अजब सर-ज़मीन है

सर को न फेंक अपने फ़लक पर ग़ुरूर से
तू ख़ाक से बना है तिरा घर ज़मीन है

रोता फिरा है कौन ये सर-गश्ता ऐ फ़लक
जीधर नज़र पड़े है उधर तर ज़मीन है

आईने की तरह से नज़र है तू देख ले
रौशन-दिलों की घर की मुनव्वर ज़मीन है

शायद नहा के आज निचोड़ी है तू ने ज़ुल्फ़
घर की तमाम तेरी मुअंबर ज़मीन है

गीती ने ज़ेर-ए-चर्ख़ रखा है सभों को थाम
इस कश्ती-ए-जहान की लंगर ज़मीन है

ले दिल से चश्म तक मिरे दरिया सा है भरा
दोनों घरों की ग़र्क़ सरासर ज़मीन है

अव्वल यही है बाइस-ए-ख़ूँ-रेज़ी-ए-जहाँ
ज़ेवर है ज़न है ज़ोर है या ज़न ज़मीन है

इस तंगना-ए-दहर से जाऊँ किधर निकल
ऊधर है आसमान और ईधर ज़मीन है

जुज़ ख़ून-ए-कोहकन न उगे वाँ से कोई गुल
शीरीं की राह-ए-इश्क़ की पत्थर ज़मीन है

रौंदे हो नक़्श-ए-पा की तरह जिस को तुम 'हसन'
देखोगे कोई दिन यही सर पर ज़मीन है