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दिल की ख़ातिर ही ज़माने की बला हो जैसे | शाही शायरी
dil ki KHatir hi zamane ki bala ho jaise

ग़ज़ल

दिल की ख़ातिर ही ज़माने की बला हो जैसे

जावेद वशिष्ट

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दिल की ख़ातिर ही ज़माने की बला हो जैसे
ज़िंदगी अपने गुनाहों की सज़ा हो जैसे

दिल की वादी में तमन्नाओं की रंगा-रंगी
कोई मेला किसी बस्ती में लगा हो जैसे

हाँ पुकारा है ग़म-ए-ज़ीस्त ने यूँ भी हम को
प्यार में डूबी हुई तेरी सदा हो जैसे

जादा-ए-शौक़ में जलते हैं दिए दूर तलक
अपना हर नक़्श-ए-क़दम राह-नुमा हो जैसे

दिल जलाओ भी कि 'जावेद' अँधेरा है बहुत
रौशनी राह-गुज़ारों से ख़फ़ा हो जैसे