दिल की कहूँ या कहूँ जिगर की
कुछ बात करूँ इधर-उधर की
लौ दिल की बुझाएँ या जिगर की
लें अश्क ख़बर किधर किधर की
उठने न दिया हमें मरे पर
ली ज़ोफ़ ने आक़िबत पिसर की
घड़ियाल नसीब हूँ शब-ए-वस्ल
सर चोट है हर घड़ी गजर की
ढलने को है मेहर-ए-नौजवानी
छुटने पे है तोप दोपहर की
क्या कम-सुखनों को शम्अ' कहिए
शम्ओं' की ज़बाँ है हाथ भर की
मरक़द में चले रह-ए-अदम ली
सूझी जो मुसाफ़िरत में घर की
काकुल हुई तर अरक़ से रुख़ के
पी साँप ने उस फूल पर की
जी क़ब्र में ख़ाक भले ऐ 'शाद'
बस्ती है उजाड़ इस नगर की
ग़ज़ल
दिल की कहूँ या कहूँ जिगर की
शाद लखनवी