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दिल की कहूँ या कहूँ जिगर की | शाही शायरी
dil ki kahun ya kahun jigar ki

ग़ज़ल

दिल की कहूँ या कहूँ जिगर की

शाद लखनवी

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दिल की कहूँ या कहूँ जिगर की
कुछ बात करूँ इधर-उधर की

लौ दिल की बुझाएँ या जिगर की
लें अश्क ख़बर किधर किधर की

उठने न दिया हमें मरे पर
ली ज़ोफ़ ने आक़िबत पिसर की

घड़ियाल नसीब हूँ शब-ए-वस्ल
सर चोट है हर घड़ी गजर की

ढलने को है मेहर-ए-नौजवानी
छुटने पे है तोप दोपहर की

क्या कम-सुखनों को शम्अ' कहिए
शम्ओं' की ज़बाँ है हाथ भर की

मरक़द में चले रह-ए-अदम ली
सूझी जो मुसाफ़िरत में घर की

काकुल हुई तर अरक़ से रुख़ के
पी साँप ने उस फूल पर की

जी क़ब्र में ख़ाक भले ऐ 'शाद'
बस्ती है उजाड़ इस नगर की