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दिल के ज़ख़्मों की चुभन दीदा-ए-तर से पूछो | शाही शायरी
dil ke zaKHmon ki chubhan dida-e-tar se puchho

ग़ज़ल

दिल के ज़ख़्मों की चुभन दीदा-ए-तर से पूछो

बुशरा हाश्मी

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दिल के ज़ख़्मों की चुभन दीदा-ए-तर से पूछो
मेरे अश्कों का है क्या मोल गुहर से पूछो

घर जला बैठे चराग़ों की हवस में आख़िर
घर की क़ीमत तो किसी ख़ाक-बसर से पूछो

ये तो मा'लूम है मैं सम्त-ए-सफ़र खो बैठी
तुम इसी बात को अंदाज़-ए-दिगर से पूछो

रेत उड़ती है सुझाई नहीं देता कुछ भी
कट सकेगी कभी ये रात सहर से पूछो

यूँ तो मजनूँ भी हुआ कोहकन ओ मंसूर हुए
घायल अब कौन हुआ तीर-ए-नज़र से पूछो

लोग कहते हैं मुझे संग-ए-सर-ए-रह 'बुशरा'
क़द्र-ओ-क़ीमत मिरी कुछ अहल-ए-हुनर से पूछो