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दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा | शाही शायरी
dil ke har dard ne ashaar mein Dhalna chaha

ग़ज़ल

दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा

बशर नवाज़

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दिल के हर दर्द ने अशआ'र में ढलना चाहा
अपना पैराहन-ए-बे-रंग बदलना चाहा

कोई अन-जानी सी ताक़त थी जो आड़े आई
वर्ना हम ने तो बहर-गाम सँभलना चाहा

चाहते तो किसी पत्थर की तरह जी लेते
हम ने ख़ुद मोम की मानिंद पिघलना चाहा

आँखें जलने लगीं तपते हुए बाज़ारों में
दिल ने जब भी किसी मंज़र पे मचलना चाहा

सिर्फ़ हम ही नहीं हर एक ने जीने के लिए
इक न इक झूटे सहारे से बहलना चाहा

कौन है ये जो सिसकता है मिरे सीने में
कौन है जिस ने मिरे ख़ून पे पलना चाहा