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दिल का आज़ार कम नहीं होता | शाही शायरी
dil ka aazar kam nahin hota

ग़ज़ल

दिल का आज़ार कम नहीं होता

अर्श मलसियानी

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दिल का आज़ार कम नहीं होता
शौक़-ए-दीदार कम नहीं होता

बढ़ रही है बहुत मसीहाई
दर्द-ए-बीमार कम नहीं होता

सुल्ह-साज़ान-ए-बज़्म-ए-आलम का
जोश-ए-पैकार कम नहीं होता

देख कर तुम को और को देखें
अब तो मेआ'र कम नहीं होता

उन के इंकार-ए-रूह-फ़र्सा से
उन का इक़रार कम नहीं होता

ऐ फ़लक और कोई ताज़ा सितम
करम-ए-यार कम नहीं होता

ज़ाहिरी हक़-परस्तीयों से कभी
कुफ़्र-ए-दीं-दार कम नहीं होता

दौर-ए-मय में कमी तो आती है
शौक़-ए-मय-ख़्वार कम नहीं होता

मय से रग़बत है शैख़ को हर-चंद
मय से इंकार कम नहीं होता

'अर्श' दाद-ए-सुख़न न मिलने से
लुत्फ़-ए-अशआ'र कम नहीं होता