दिल जिंस-ए-मोहब्बत का ख़रीदार नहीं है
पहली सी वो अब सूरत-ए-बाज़ार नहीं है
हर बार वही सोच वही ज़हर का साग़र
इस पर ये सितम-ए-जुरअत-ए-इंकार नहीं है
कुछ उठ के बगूलों की तरह हो गए रक़्साँ
कुछ कहते रहे रास्ता हमवार नहीं है
दिल डूब गया लज़्ज़त-ए-आग़ोश-ए-सहर में
बेदार है इस तरह कि बेदार नहीं है
हम इस से मता-ए-दिल-ओ-जाँ माँग रहे हैं
जो एक तबस्सुम का रवादार नहीं है
ये सर से निकलती हुई लोगों की फ़सीलें
दिल से मगर ऊँची कोई दीवार नहीं है
दम साध के बैठा हूँ अगरचे मिरे सर पर
इक शाख़-ए-समर-दार है तलवार नहीं है
दम लो न कहीं धूप में चलते रहो 'बाक़ी'
अपने लिए ये साया-ए-अश्जार नहीं है
ग़ज़ल
दिल जिंस-ए-मोहब्बत का ख़रीदार नहीं है
बाक़ी सिद्दीक़ी