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दिल हुआ वीराँ मता-ए-चश्म-ए-नम जाती रही | शाही शायरी
dil hua viran mata-e-chashm-e-nam jati rahi

ग़ज़ल

दिल हुआ वीराँ मता-ए-चश्म-ए-नम जाती रही

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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दिल हुआ वीराँ मता-ए-चश्म-ए-नम जाती रही
रफ़्ता रफ़्ता शोरिश-ए-तब-ए-अलम जाती रही

तुझ पे क्या गुज़री कि पास-ए-आशिक़ाँ करने लगा
या'नी हम पर वो तिरी मश्क़-ए-सितम जाती रही

हम को दुनिया से शिकायत है कुछ इस अंदाज़ की
थी कभी दुनिया को जैसे क़द्र-ए-ग़म जाती रही

मय-कदा है रिंद हैं साक़ी है दौर-ए-जाम है
बज़्म-ए-जम बाक़ी है अब तक शान-ए-जम जाती रही

रह गया सीने में ग़म आसार-ए-ग़म ज़ाहिर नहीं
ग़मगुसारों से भी अब चश्म-ए-करम जाती रही

जिस को कहते हैं मोहब्बत हो गई अब रस्म-ए-ग़ैर
जिस को कहते हैं मुरव्वत बेश-ओ-कम जाती रही