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दिल होता है तस्कीन के आलम में हज़ीं और | शाही शायरी
dil hota hai taskin ke aalam mein hazin aur

ग़ज़ल

दिल होता है तस्कीन के आलम में हज़ीं और

अर्श मलसियानी

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दिल होता है तस्कीन के आलम में हज़ीं और
ले चल मुझे ऐ शौक़-ए-सुबुक-गाम कहीं और

हाँ और उठा पर्दे को ऐ पर्दा-नशीं और
मुझ सा नहीं कोई तिरे जल्वों का अमीं और

जितनी वो मिरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ
आता है मुझे उन की मोहब्बत का यक़ीं और

मय-ख़ाने की है शान उसी शोर-ए-तलब से
हाँ और नहीं पर है तक़ाज़ा कि नहीं और

है हासिल-ए-सद-ज़ीस्त जवानी का ये आलम
ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ मुझे रहने दे यहीं और

मुझ सा जो नहीं और कोई चाहने वाला
तुझ सा भी ज़माने में नहीं कोई हसीं और

काफ़ी नहीं मुझ को ये निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़
हाँ और बढ़ा हौसला-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं और

तकरार का ऐ शैख़ यही तो है नतीजा
तुम ने जो कहीं और तो हम से भी सुनीं और

हम मर्तबा-ए-'अर्श' कोई उन में न होगा
होंगे दर-ए-जानाँ के बहुत ख़ाक-नशीं और