दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा
फिर नशा-ए-सहबा से न तिरयाक से बाँधा
उस ज़ुल्फ़ से जब रब्त हुआ जी को तो हम ने
शाने का तसव्वुर दिल-ए-सद-चाक से बाँधा
देखा न क़द-ए-सर्व को फिर हम ने चमन में
जिस दिन से दिल उस क़ामत-ए-चालाक से बाँधा
जो आहू-ए-दिल भा गया उस सद-फ़गन को
झप उस ने उसे काकुल-ए-पेचाक से बाँधा
और जो न पसंद आया उसे वो तो 'नज़ीर' आह
ने सैद किया उस को न फ़ितराक से बाँधा
ग़ज़ल
दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा
नज़ीर अकबराबादी