EN اردو
दिल-ए-सीमाब-सिफ़त फिर तुझे ज़हमत दूँगा | शाही शायरी
dil-e-simab-sifat phir tujhe zahmat dunga

ग़ज़ल

दिल-ए-सीमाब-सिफ़त फिर तुझे ज़हमत दूँगा

सलीम कौसर

;

दिल-ए-सीमाब-सिफ़त फिर तुझे ज़हमत दूँगा
दूर-उफ़्तादा ज़मीनों की मसाफ़त दूँगा

अपने अतराफ़ नया शहर बसाऊँगा कभी
और इक शख़्स को फिर उस की हुकूमत दूँगा

इक दिया नींद की आग़ोश में जलता है कहीं
सिलसिला ख़्वाब का टूटे तो बशारत दूँगा

क़िस्सा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ वक़्फ़-ए-मुदारात हुआ
फिर किसी रोज़ मुलाक़ात की ज़हमत दूँगा

मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी
जो नहीं लिक्खा अभी उस की बशारत दूँगा

एक सफ़्हा कहीं तारीख़ में ख़ाली है अभी
आख़िरी जंग से पहले तुम्हें मोहलत दूँगा