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दिल-ए-दर्द-आश्ना का मुद्दआ' क्या | शाही शायरी
dil-e-dard-ashna ka muddaa kya

ग़ज़ल

दिल-ए-दर्द-आश्ना का मुद्दआ' क्या

गुलज़ार देहलवी

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दिल-ए-दर्द-आश्ना का मुद्दआ' क्या
किसी बेदाद की कीजे दवा क्या

हुआ इंसाँ ही जब इंसाँ का दुश्मन
शिकायत फिर किसी की क्या गिला क्या

बहार-ए-ताज़ा आई गुल्सिताँ में
खिलाए जाने गुल बाद-ए-सबा क्या

वो कहते हैं नशेमन तर्क कीजे
चली गुलशन में ये ताज़ा हवा क्या

उठी इंसानियत यकसर यहाँ से
यकायक ख़ू-ए-इंसाँ को हुआ क्या

नहीं मा'लूम मुस्तक़बिल किसी को
मराहिल पेश आएँ जाने क्या क्या

उजड़ कर रह गया दो दिन में हे हे
मिरे 'गुलज़ार'-ए-हिन्दी को हुआ क्या