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दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए | शाही शायरी
dil-dadgan-e-husn se parda na chahiye

ग़ज़ल

दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए

मुज़्तर ख़ैराबादी

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दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए
दिल ले के छुप गए तुम्हें ऐसा न चाहिए

दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
इतनी ज़रा सी बात पे झगड़ा न चाहिए

ज़ाहिद तो बख़्शे जाएँ गुनहगार मुँह तकें
ऐ रहमत-ए-ख़ुदा तुझे ऐसा न चाहिए

ऐ दिल सदा उसी की तरफ़ सर झुका रहे
का'बा वही है ग़ैर का सज्दा न चाहिए

का'बा समझ के दैर में 'मुज़्तर' बसर करो
वो हर जगह है अब कहीं जाना न चाहिए