दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए
दिल ले के छुप गए तुम्हें ऐसा न चाहिए
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
इतनी ज़रा सी बात पे झगड़ा न चाहिए
ज़ाहिद तो बख़्शे जाएँ गुनहगार मुँह तकें
ऐ रहमत-ए-ख़ुदा तुझे ऐसा न चाहिए
ऐ दिल सदा उसी की तरफ़ सर झुका रहे
का'बा वही है ग़ैर का सज्दा न चाहिए
का'बा समझ के दैर में 'मुज़्तर' बसर करो
वो हर जगह है अब कहीं जाना न चाहिए
ग़ज़ल
दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए
मुज़्तर ख़ैराबादी