दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
हक़ जो पूछो एक दर है दो तरफ़
ख़्वाह काबा ख़्वाह बुत-ख़ाना को जा
दश्त-ए-दिल का रहगुज़र है दो तरफ़
कुफ़्र ओ ईमाँ दोनों जानिब की सुने
इस लिए गोश-ए-बशर है दो तरफ़
रख़्ना-अंदाज़ों की कब छुपती है आँख
चश्म-ए-रौज़न की नज़र है दो तरफ़
बाग़ हो या दश्त हो क़िस्मत 'नसीम'
कोच की अपने ख़बर है दो तरफ़
ग़ज़ल
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी