दिखलाए ख़ुदा उस सितम-ईजाद की सूरत
इस्तादा हैं हम बाग़ में शमशाद की सूरत
याद आती है बुलबुल पे जो बेदाद की सूरत
रो देता हूँ मैं देख के सय्याद की सूरत
आज़ाद तिरे ऐ गुल-ए-तर बाग़-ए-जहाँ में
बे-जाह-ओ-हशम शाद हैं शमशाद की सूरत
जो गेसू-ए-जानाँ में फँसा फिर न छुटा वो
हैं क़ैद में फिर ख़ूब है मीआद की सूरत
खींचेंगे मिरे आईना-रुख़्सार की तस्वीर
देखे तो कोई मानी-ओ-बहज़ाद की सूरत
गाली के सिवा हाथ भी चलता है अब उन का
हर रोज़ नई होती है बेदाद की सूरत
किस तरह 'अमानत' न रहूँ ग़म से मैं दिल-गीर
आँखों में फिरा करती है उस्ताद की सूरत
ग़ज़ल
दिखलाए ख़ुदा उस सितम-ईजाद की सूरत
अमानत लखनवी