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दिखाई दे न कभी ये तो मुम्किनात में है | शाही शायरी
dikhai de na kabhi ye to mumkinat mein hai

ग़ज़ल

दिखाई दे न कभी ये तो मुम्किनात में है

कृष्ण बिहारी नूर

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दिखाई दे न कभी ये तो मुम्किनात में है
वो सब वजूद में है जो तसव्वुरात में है

मैं जिस हुनर से हूँ पोशीदा अपनी ग़ज़लों में
उसी तरह वो छुपा सारी काएनात में है

कि जैसे जिस्म की रग रग में दौड़ता है लहू
इसी तरह वो रवाँ अरसा-ए-हयात में है

कि जैसे संग के सीने में कोई बुत है निहाँ
उसी तरह कोई सूरत तख़य्युलात में है

कि जैसे वक़्त गुज़रने का कुछ न हो एहसास
उसी तरह वो शरीक-ए-सफ़र हयात में है

कि जैसे बू-ए-वफ़ा ख़ुद-सुपुर्दगी में मिले
उसी तरह की महक उस की इल्तिफ़ात में है

कि जैसे झूट कई झूट के सहारे ले
उसी तरह वो परेशाँ तकल्लुफ़ात में है

गुनाह भी कोई जैसे करे डरे भी बहुत
उसी तरह की झिझक उस की बात बात में है

बस अब तो इश्क़ है हिज्र-ओ-विसाल कुछ भी नहीं
ये टुकड़ा ज़ीस्त का दिन में है और न रात में है

नज़र के ज़ाविए बदले है और कुछ भी नहीं
वही है का'बे में जो 'नूर' सोमनाथ में है