धूप सी उम्र बसर करना है
एक दीवार को सर करना है
आँख तो सिर्फ़ शहादत देगी
दिल को तस्दीक़-ए-सहर करना है
अब फ़सीलों पे उगाना है गुलाब
फ़ौज को शहर-बदर करना है
सिर्फ़ जुगनू सा चमकना है 'शहाब'
कब मुझे कार-ए-ख़िज़र करना है

ग़ज़ल
धूप सी उम्र बसर करना है
मुस्तफ़ा शहाब