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धूप छाँव ज़ेहनों का आसरा नहीं रखते | शाही शायरी
dhup chhanw zehnon ka aasra nahin rakhte

ग़ज़ल

धूप छाँव ज़ेहनों का आसरा नहीं रखते

अंजुम अज़ीमाबादी

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धूप छाँव ज़ेहनों का आसरा नहीं रखते
हम ग़रज़ के बंदों से वास्ता नहीं रखते

ज़ोम-ए-पारसाई में कब ख़याल है उन को
तंज़ तो वो करते हैं आइना नहीं रखते

साज़िशें अलामत तो पस्त हिम्मती की हैं
साज़िशें जो करते हैं हौसला नहीं रखते

वो ग़ुरूर-ए-तक़्वा में बस यही समझते हैं
जैसे है ख़ुदा उन का हम ख़ुदा नहीं रखते

तुम हवस-परस्तों के सैंकड़ों ख़ुदा ठहरे
एक है ख़ुदा अपना दूसरा नहीं रखते

किस तरह मुनव्वर हो ख़ाना-ए-शुऊ'र 'अंजुम'
ज़ेहन के दरीचों को तुम खुला नहीं रखते