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धूल न बनना आईनों पर बार न होना | शाही शायरी
dhul na banna aainon par bar na hona

ग़ज़ल

धूल न बनना आईनों पर बार न होना

गुलज़ार वफ़ा चौदरी

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धूल न बनना आईनों पर बार न होना
बीनाई के रस्ते की दीवार न होना

शहरों का विर्सा हैं जलते-बुझते मंज़र
रहना लेकिन हम-रंग-ए-बाज़ार न होना

ज़हर-हवाएँ पुर्वा रंगों में चलती हैं
सादा कलियो उन के लिए गुलनार न होना

मिलने का खिलने का मौसम दूर नहीं है
नख़्ल-ए-मातम ऐ मेरे अश्जार न होना

मैं ने चमन की ख़ातिर कौन से दुख झेले हैं
शाख़-ए-बहाराँ मेरे लिए गुल-बार न होना