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देते हैं जाम-ए-शहादत मुझे मा'लूम न था | शाही शायरी
dete hain jam-e-shahadat mujhe malum na tha

ग़ज़ल

देते हैं जाम-ए-शहादत मुझे मा'लूम न था

फ़िराक़ गोरखपुरी

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देते हैं जाम-ए-शहादत मुझे मा'लूम न था
है ये आईन-ए-मोहब्बत मुझे मा'लूम न था

मतलब-ए-चश्म-ए-मुरव्वत मुझे मा'लूम न था
तुझ को मुझ से थी शिकायत मुझे मा'लूम न था

चश्म-ए-ख़ामोश की बाबत मुझे मा'लूम न था
ये भी है हर्फ़-ओ-हिकायत मुझे मा'लूम न था

इश्क़ बस में है मशिय्यत के अक़ीदा था मिरा
उस के बस में है मशिय्यत मुझे मा'लूम न था

हफ़्त-ख़्वाँ जिस ने किए तय सर-ए-राह-ए-तस्लीम
टूट जाती है वो हिम्मत मुझे मा'लूम न था

आज हर क़तरा-ए-मय बन गया इक चिंगारी
थी ये साक़ी की शरारत मुझे मा'लूम न था

निगह-ए-मस्त ने तलवार उठा ली सर-ए-बज़्म
यूँ बदल जाती है निय्यत मुझे मा'लूम न था

ग़म-ए-हस्ती से जो बेज़ार रहा मैं इक उम्र
तुझ से भी थी उसे निस्बत मुझे मा'लूम न था

इश्क़ भी अहल-ए-तरीक़त में है ऐसा था ख़याल
इश्क़ है पीर-ए-तरीक़त मुझे मा'लूम न था

पूछ मत शरह-करम-हा-ए-अज़ीज़ाँ हमदम
उन में इतनी थी शराफ़त मुझे मा'लूम न था

जब से देखा है तुझे मुझ से है मेरी अन-बन
हुस्न का रंग-ए-सियासत मुझे मा'लूम न था

शक्ल इंसान की हो चाल भी इंसान की हो
यूँ भी आती है क़यामत मुझे मा'लूम न था

सर-ए-मामूरा-ए-आलम ये दिल-ए-ख़ाना-ख़राब
मिट गया तेरी बदौलत मुझे मा'लूम न था

पर्दा-ए-अर्ज़-ए-वफ़ा में भी रहा हूँ करता
तुझ से मैं अपनी ही ग़ीबत मुझे मा'लूम न था

नक़्द-ए-जाँ क्या है ज़माने में मोहब्बत हमदम
नहीं मिलती किसी क़ीमत मुझे मा'लूम न था

हो गया आज रफ़ीक़ों से गले मिल के जुदा
अपना ख़ुद इश्क़-ए-सदाक़त मुझे मा'लूम न था

दर्द दिल क्या है खुला आज तिरे लड़ने पर
तुझ से इतनी थी मोहब्बत मुझे मा'लूम न था

दम निकल जाए मगर दिल न लगाए कोई
इश्क़ की ये थी वसिय्यत मुझे मा'लूम न था

हुस्न वालों को बहुत सहल समझ रक्खा था
तुझ पे आएगी तबीअत मुझे मा'लूम न था

कितनी ख़ल्लाक़ है ये नीस्ती-ए-इश्क़ 'फ़िराक़'
उस से हस्ती है इबारत मुझे मा'लूम न था