देता है कोई मुझे सदा बाहर आ
ऐ मिरे बदन में क़ैद हवा बाहर आ
कब से हिला रहा हूँ ज़ंजीर दर-ए-शब
तू ही ले कर हाथों में दिया बाहर आ
क्यूँ बना हुआ है हदफ़ ज़माने का
गुज़रा है क्या तुझ पे सानेहा बाहर आ
ताक़ में कब से सजा रहा हूँ याद-ए-चराग़
तू ही तो है इक मेरा आश्ना बाहर आ
कब तक तू आसमाँ में छुप के बैठेगा
माँग रहा हूँ मैं कब से दुआ बाहर आ
तुझे यक़ीन अगर है अपने होने का
आ ऐ मेरी जान-ए-बे-नवा बाहर आ
संग-ए-मलामत से बच जाए तो जानें
'तूर' इस शहर-ए-मुनाफ़िक़ में ज़रा बाहर आ

ग़ज़ल
देता है कोई मुझे सदा बाहर आ
कृष्ण कुमार तूर