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देखते जाते हैं नमनाक हुए जाते हैं | शाही शायरी
dekhte jate hain namnak hue jate hain

ग़ज़ल

देखते जाते हैं नमनाक हुए जाते हैं

फ़रासत रिज़वी

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देखते जाते हैं नमनाक हुए जाते हैं
क्या गुलिस्ताँ ख़स-ओ-ख़ाशाक हुए जाते हैं

एक इक कर के वो ग़म-ख़्वार सितारे मेरे
ग़म सर-ए-वुसअ'त-ए-अफ़्लाक हुए जाते हैं

ख़ुश नहीं आया ख़िज़ाँ को मिरा उर्यां होना
ज़र्द पत्ते मिरी पोशाक हुए जाते हैं

देख कर क़र्या-ए-वीराँ में ज़मिस्ताँ का चाँद
शाम के साए अलम-नाक हुए जाते हैं

ज़ुल्म सब अहल-ए-ज़मीं पर हैं ज़मीं वालों के
हम अबस दुश्मन-ए-अफ़्लाक हुए जाते हैं

दीदा-ए-तर से मयस्सर था हमें दिल का गुदाज़
क़हत-ए-गिर्या है तो सफ़्फ़ाक हुए जाते हैं

कूज़ा-गर ने हमें मिट्टी से किया था तख़्लीक़
क्या तअ'ज्जुब है अगर ख़ाक हुए जाते हैं

कैसी इबरत है कि इस कशमकश-ए-रिज़्क में हम
अपने ही रिज़्क़ की ख़ूराक हुए जाते हैं