देखता भी है देखता भी नहीं
जैसे वो मुझ को जानता भी नहीं
किस तरह आज ख़ुद को पहचानूँ
मेरे घर में तो आइना भी नहीं
धाक थी सारे शहर में जिस की
अब उसे कोई पूछता भी नहीं
पीछे मुड़ने में ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
आगे जाने का रास्ता भी नहीं
रोज़ ख़बरों में नाम आता है
शहर में कोई जानता भी नहीं
ग़ैर से पूछता है हाल मिरा
मैं बुलाऊँ तो बोलता भी नहीं
उस को निकला हूँ ढूँडने 'कौसर'
जिस का कोई अता-पता भी नहीं

ग़ज़ल
देखता भी है देखता भी नहीं
महेर चंद काैसर