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देखो घिर कर बादल आ भी सकता है | शाही शायरी
dekho ghir kar baadal aa bhi sakta hai

ग़ज़ल

देखो घिर कर बादल आ भी सकता है

ज़करिय़ा शाज़

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देखो घिर कर बादल आ भी सकता है
आधी रात वो पागल आ भी सकता है

यूँ जो उड़ता फिरता है तेरे सर पर
पैरों में ये आँचल आ भी सकता है

राख के ढेर में आग छुपी भी होती है
ख़ाली आँख में काजल आ भी सकता है

लाज़िम है क्या सब की प्यास हो इक जैसी
हो कर कोई जल-थल आ भी सकता है

इतने मोड़ सफ़र में देख चुका हूँ 'शाज़'
मेरे ख़यालों में बल आ भी सकता है