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देखे कहीं मुझ को तो लब-ए-बाम से हट जाए | शाही शायरी
dekhe kahin mujhko to lab-e-baam se haT jae

ग़ज़ल

देखे कहीं मुझ को तो लब-ए-बाम से हट जाए

मोहम्मद अमान निसार

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देखे कहीं मुझ को तो लब-ए-बाम से हट जाए
इस वज़्अ से उस की मिरा दिल क्यूँकि न फट जाए

आ जाए कहीं बाद का झोंका तो मज़ा हो
ज़ालिम तिरे मुखड़े से दुपट्टा जो उलट जाए

ऐ नाला-ए-जाँ-काह बहुत हो चुकी बस कर
डरता हूँ कहीं नींद किसी की न उचट जाए

देखे कहीं रस्ते में खड़ा मुझ को तो ज़िद से
आता हो इधर को तो उधर ही को पलट जाए

चल बैठ 'निसार' एक तरफ़ ख़ल्क़ से होकर
निकलेगा वो घर से प कहीं भीड़ तो छट जाए